07 मई 2011

फरक्का नहीं फ़ज़ीहत मेल




रेल बजट और आम बजट आने के कुछ दिनों बाद मुझे एक कार्यक्रम में शामिल होने के लिए दिल्ली से लखनऊ जाना था. अब अचानक से किसी अच्छी ट्रेन में तो टिकट मिलने से रहा लिहाजा जैसे-तैसे फरक्का मेल का टिकट लिया. पहली बार इस ट्रेन से जा रहा था इस वजह से कुछ लोगों से फीडबैक भी लिया. पता चला कि आज तक तो कभी लखनऊ वक्त पर पहुंची नहीं. ख़ैर मेरे पास कोई चारा भी नहीं था. कोढ़ में खाज का काम किया रेल रोको आंदोलन ने. पता चला कि मुरादाबाद ट्रैक पर काफूरपुर के पास एक समाज के लोग केन्द्रीय सेवाओं में आरक्षण की मांग को लेकर आंदोलित हैं. पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुंचकर ट्रेन की इंक्वायरी की तो थोड़ा जान में जान आई. मालूम हुआ कि ट्रेन अलीगढ़-हाथरस के रूट से चलती है और सही समय पर प्लेटफॉर्म से छूटेगी. थोड़ा सा औऱ सहारा मिला जब जाना कि फरक्का ट्रेन पश्चिम बंगाल के मालदा टाउन तक जाती है. ऐसे में मैंने अनुमान लगाया कि दीदी का गृहराज्य होने की वजह से ट्रेन ज़्यादा लेट नहीं होनी चाहिए.
                                                             दिल्ली से ट्रेन राइट टाइम पर छूटी. मेरे सामने की सीटें खाली थीं. ग़ाज़ियाबाद तक जाने वाले तीन युवक उसी सीट पर आराम फरमाने लगे. एक तो जूता पहने ही सोने लगा. रास्ते में उसके एक साथी ने जगाना चाहा तो बोला मुझे पता है कि अभी ग़ाज़ियाबाद नहीं आया. हिंडन नदी पड़ेगी तो मैं ख़ुद-बख़ुद उठ जाऊंगा. बताते चलें कि हिंडन नदी ग़ाज़ियाबाद में है. हिंडन भी पार हुई और ग़ाज़ियाबाद भी आ गया. अब बारी थी असली स्क्रिप्ट की. युवक तो वहां उतर गए लेकिन खाली बर्थों के असली मालिक तो अब ट्रेन में चढ़े थे. ख़ुद को कांस्टेबल बताने वाले एक महाशय ट्रेन की बोगी में कुछ ऐसा घुसे कि एक वेंडर के हाथ से पूड़ी-सब्जी का पैकेट नीचे गिरा बैठे. पहले तो रौब गांठा, ट्रेन में भीड़ की दुहाई दी लेकिन वो कोई ऐरा-ग़ैरा थोड़े था. ऐसे में वेंडर के सामने सरेंडर करने में ही कांस्टेबल महोदय ने अपनी भलाई समझी. हां एक चालाकी ज़रूर खेली उसे सौ का नोट देकर. सोचा था फुटकर के फेर में फंसकर वेंडर पैसा वापस कर देगा, लेकिन वेंडर तो इसके आदी होते हैं. पलक झपकते ही उसने 90 रुपये गिनकर कांस्टेबल साहब को दे दिए. खाकी के खिलाड़ी के चेहरा देखने लायक था. अपना दुखड़ा मुझसे कहने लगे, लेकिन मेरी तरफ से शुष्क प्रतिक्रिया देखकर चुप हो गए.


ट्रेन अब ग़ाज़ियाबाद से चल चुकी थी. मेरी बर्थ मिडिल थी जबकि मेरे सामने की सीट पर बैठने वाले जो तीन लोग चढ़े थे उनके पास मेरे तरफ की निचली और ऊपर की बर्थ थी. ये एक बंगाली परिवार था- मां, बाप और बेटा. मुकाम मालदा टाउन. दरअसल मैं निचली बर्थ पर चद्दर बिछाकर लेट गया था. बंगाली परिवार ने अपना टिकट दिखाकर मुझसे सीट नंबर की तस्दीक की. वो तीनों लोग अपना सामान रखकर सोने का इंतज़ाम करने लगे. बेटा तो सबसे ऊपर की बर्थ पर चला गया जबकि मां और बाप मेरे सामने की निचली और बीच की बर्थ पर लेटने जा रहे थे. इसी दौरान टीटी महोदय भी पहुंच गए. टिकट देखने के बाद बंगाली परिवार को अपनी बर्थ पता चल गई. पता नहीं क्यों युवक की मां अचानक ही मेरे ऊपर बरसने लगीं. बोलीं कि हम लोगों को अनपढ़-गंवार समझते हो, ग़लत सीट नंबर बताते हो और जाने क्या-क्या. मैंने कहा कि आप लोगों ने मुझसे सीट के बारे में पूछा और मैंने कहा कि यहीं है. अब भला इसमें मेरी क्या ग़लती. ख़ैर किसी तरह से रात बीती. रात की नींद तो गाना बजाने वालों ने हराम कर दी थी. कभी मुन्नी बदनाम तो कभी तेरे नाम ख़ुद भी सुनते रहे और सहयात्रियों को भी जबरन सुनाते रहे. सुबह हुई और गरम पानी की बढ़िया चाय का ट्रेन में आगमन हो चुका था. मैंने भी मन मसोसकर चाय को गले से उतारा. इसी दौरान मेरी निगाह साइड लोअर सीट पर बैठे एक दिलचस्प शख़्स पर पड़ी. चेहरे से ही अनुभवी यात्री मालूम पड़ रहे थे. बगल में बैठे एक सहयात्री ने सवाल दागा कि कहां तक चल रहे हैं भाई साहब...जवाब में वो महानुभाव बोले आधी दूरी तक. दूसरे ने फिर पूछा कि वो कैसे...तो कहने लगे कि बनारस तक की दूरी आधी हुई. अब ये बात और है कि उनको सुल्तानपुर तक ही जाना था. उनके तजुर्बे का मैं भी कायल हो गया और पूछ ही बैठा कि ये ट्रेन (फरक्का) कभी समय पर पहुंचती थी या नहीं. सुनते ही उनकी आंखों में मानो चमक आ गई. बोले कि भाई साहब 30 साल से ज़्यादा अरसे से इस ट्रेन से चल रहा हूं. 1985-86 में ये राइट टाइम रहा करती थी. आख़िरकार सुबह सवा 10 बजे के क़रीब में लखनऊ स्टेशन पहुंच ही गया. फरक्का अपने नियत समय से महज तीन घंटे ही लेट थी. ट्रेन से उतरते वक्त बंगाली परिवार के मुखिया ने मुझसे पूछा कि लखनऊ में ट्रेन कितनी देर रुकेगी. मैंने कहा कि वैसे तो 10-15 मिनट रुकनी चाहिए, लेकिन लखनऊ तो बड़ा स्टेशन है इसलिए देर तक भी रुक सकती है. हां उनको ये नहीं बताया कि यूपी में समाजवादी पार्टी के राज्य सरकार के ख़िलाफ़ चल रहे आंदोलन की वजह से सपा कार्यकर्ता ट्रेन को कहीं भी खड़ी कर सकते हैं. ख़ैर मैं तो अपने मुकाम लखनऊ पहुंच चुका था इसलिए थोड़ा बेपरवाह होकर प्रीपेड टैक्सी स्टैंड की ओर बढ़ चला. मेरे ख्याल से फरक्का मेल में ये मेरी पहली और आख़िरी यात्रा साबित होगी...
 
संप्रति- सुधाकर सिंह

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