08 मई 2011

वर्दी वाला हीरो...











कहा जाता है कि दर्शक जो देखना चाहता है, सिनेमा वही दिखाता है. लेकिन, कई बार बात इसके उलट भी हो सकती है. दर्शक वही देखता है. जो सिनेमा उसे दिखाता है. इन दिनों एक बार फिर से सिनेमा के नायक पुलिस की वर्दी में नज़र आने लगे हैं.
                   इफ़्तिकार..आप इस नाम से शायद वाक़िफ न हों. लेकिन, इस चेहरे को आप जरूर पहचानते होंगे.इस चेहरे की एक  पहचान जो हमारे दिलोदिमाग में बसी हुई है. वो है पुलिस की वर्दी. इंस्पेक्टर से लेकर कमिश्नर तक. हिन्दी फिल्मों में ये शख्स पुलिस के छोटे-बड़े अधिकारी के किरदार में अक्सर नज़र आता रहा है..दरअसल, हमारी ज़िंदगी के निजी अनुभव पुलिस की जो कहानी बयां करते थे.सिनेमा के पर्दे पर इफ़्तिकार को देखकर वो कहानी ख़ुद-ब-ख़ुद  उलट जाती थी.श्री 420 पहली फ़िल्म थी जिसमें इफ्तिकार पुलिस इंस्पेक्टर के क़िरदार में दिखे.फिर ये सिलसिला आगे भी जारी रहा.इफ्तिकार ने तक़रीबन 250फ़िल्मों में काम किया. जिसमें 50 से ज़्यादा फ़िल्मों में उन्होंने इंस्पेक्टर या पुलिस के अधिकारी की भूमिका बख़ूबी निभाई. लेकिन धीरे-धीरे कैरेक्ट आर्टिस्ट नायक के क़िरदार में बदलता चला गया.ज़ंजीर इसकी बेहतरीन मिसाल है. ये न सिर्फ़ अमिताभ बच्चन की पहली सुपरहिट फ़िल्म थी. बल्कि इस फ़िल्म के ज़रिए पुलिस इंस्पेक्टर हिंदी सिनेमा का नायक हो गया. 70 के दशक में एक पुलिस अधिकारी को नायक के तौर पर स्वीकार किए जाने की वजह दरअसल उस वक़्त के समाज का संकट था.जिसमें नेहरूवादी सपनों का देश कोरी कल्पना बनकर रह गया था.एक निराशा थी. ये वो दौर था, जब समाज में अराजकता का आलम था और लोग इससे छुटकारा पाना चाहते थे. उनको चाहिए था एक एंग्री यंग मैन. जो उनके गुस्से का इज़हार कर सके. लोग बदलाव चाहते थे. और ये काम या तो एक ईमानदार पुलिस इंस्पेक्टर कर सकता था या कोई बाग़ी. समाज में जिसकी छवि गुंडे या मवाली की थी.दर्शकों की इसी चाहत को हिंदी सिनेमा ने भुनाया और एक के बाद एक फ़िल्में सामने आईं.जो पुलिस इंस्पेक्टर के क़िरदार को केन्द्र में रखकर बनाई गई थीं. ज़ंजीर की सफलता ने यही साबित किया. फ़िल्म का नायक गुंडों से निपटने का वही तरीक़ा अपनाता है. जो सिस्टम को बदलने के लिए उसे सही लगता है.
ज़ाहिर है कि नायक के तौर पर पुलिस इंस्पेक्टर के क़िरदार को दर्शक स्वीकार कर चुके थे. अब वो चरित्र अभिनेता नहीं था. कई वर्षों तक फ़िल्में पुलिस इंस्पेक्टर या बाग़ी के इर्द-गिर्द ही घूमती रहीं. ये रॉबिन हुड ही हमारा हीरो था. मेरे पास रुपया है, बंगला है, गाड़ी है. तुम्हारे पास क्या है? मेरे पास मां है”. फ़िल्म दीवार में पुलिस इंस्पेक्टर के रूप में शशि कपूर की भूमिका काफ़ी पसंद की गई. लेकिन आख़िरकार दर्शकों की सहानुभूति बाग़ी अमिताभ बच्चन को ही मिली. इसकी एक साफ़ वजह ये थी कि शशि कपूर ईमानदार तो था लेकिन नियमों में बंधा था. और हमारे मन में रॉबिन हुड की चाहत को पूरा नहीं करता था. पिछले क़रीब 40साल में ऐसी कई फ़िल्में आईं. जिसने सिनेमा के परदे पर पुलिस इंस्पेक्टर को हीरो के रूप में दिखाया और दर्शकों ने ऐसी फ़िल्मों को पसंद भी किया, जिसमें वर्दी का रौब दिखता था. 1982 में आई फ़िल्म शक्ति में दिलीप कुमार ने एक ऐसे पुलिसवाले की भूमिका निभाई, जिसके लिए क़ानून से बढ़कर कुछ भी नहीं. यहां तक कि परिवार की भी कोई अहमियत नहीं. फ़िल्म के आख़िरी दृश्य को क्या हम भूल पाएंगे, जब दिलीप कुमार के बेटे की भूमिका निभा रहे अमिताभ बच्चन की मौत अपने पिता की गोद में होती है.  हमेशा हमें ऐसी फिल्में अच्छी लगीं जिसमें तमाम मुश्किलों से लड़ते हुए अंत में पुलिस इंस्पेक्टर की जीत होती है. उस नायक की जीत होती है. जिसकी ईमानदारी और हौसले को सलाम करने का हमारा जी चाहता है.गोविंद निहलानी के निर्देशन में बनी पहली फिल्म अर्धसत्य शायद इसलिए भी हमारे बहुत क़रीब है,क्योंकि इसमें सिस्टम की दिक्कतों और हमारी ख़ुद की ज़िंदगी की मुश्किलों को बड़ी शिद्दत और सच्चाई के साथ दिखाया गया है. पुलिस अधिकारी के क़िरदार में ओम पुरी भ्रष्ट व्यवस्था से जूझते हुए आख़िरकार जीत हासिल करता है.इसमें हमें अपनी जीत भी नज़र आती है.
         1983 से 1999 के बीच लगभग 16 साल के लंबे वक्त के दौरान ऐसी कोई ख़ास फिल्म देखने को नहीं मिली, जिसने पुलिस की किसी नई छवि या पहलू को परदे पर उकेरा हो. इन वर्षों में कभी मारधाड़ और दिशाहीन फिल्मों का ज़ोर रहा. तो कभी रोमांस की चाशनी में डूबी प्रेमकथाओं का. समाज की ज़रूरतें धीरे-धीरे बदल रही थीं. सामूहिकता पर निजी ज़िंदगी हावी होती जा रही थी.समाज के बदलाव की चिंताओं को उदारीकरण और तकनीक के विकास ने हाशिए पर धकेल दिया था. लोगों का अपना घर था, अपने रिश्ते थे और उनकी चिंताएं थीं.लेकिन ये चीज़ें भी समाज और राजनीति में बढ़ते अपराध की वजह से प्रभावित हो रही थीं.उसे बचाने की चाहत ने भी सरफ़रोश और शूल जैसी फिल्मों को जन्म दिया.1999वो साल है जब हमारा सिनेमा एक बार फिर से वर्दी के दमखम को सामने ला रहा था. एक युवा प्रेमी से ईमानदार और देशभक्त आईपीएस बनने के सफ़र को आमिर ख़ान ने सरफ़रोश में संजीदगी से निभाया.वो मध्य वर्ग के सपनों का पुलिस अधिकारी था. वो मध्य वर्ग जो इस देश में बड़ा होता जा रहा था. वो नायक भी चाहता था और एक आम ज़िंदगी भी.आतंकवाद हमारे देश के लिए एक बड़ा सवाल बनता जा रहा था और कहीं न कहीं तक़लीफ इस मध्य वर्ग को भी थी. सरफ़रोश ने एक ही साथ हमारे देश के भीतर मौजूद सवालों को आवाज़ दी. एक समझदार, पढ़े-लिखे, संतुलित पुलिस अधिकारी की छवि गढ़ी. जो कई मायनों में मध्य वर्गीय दर्शकों को पसंद आई.
                    लेकिन जिन दो फ़िल्मों ने हमें सबसे ज़्यादा झकझोरा.वे शूल और गंगाजल है.इन दोनों फिल्मों का निशाना राजनीति में फैला भ्रष्टाचार और अपराधीकरण था. इन्होंने एक विकल्प देने की कोशिश की. ये विकल्प सभ्य समाज का विकल्प नहीं था. लेकिन कम से कम लोगों के गुस्से को दिखाता था.एक दबंग विधायक के ख़िलाफ़ लड़ाई में अपनी बेटी और बीवी खो चुके इंस्पेक्टर समर प्रताप के पास और कोई चारा नहीं बचा था.बिहार की पृष्ठभूमि पर बनी इस फ़िल्म से सियासी हलकों में भी तूफ़ान आ गया.ये वो दौर था जब राज्य में क़ानून व्यवस्था का हाल बुरा था. अपहरण, फिरौती और हत्या के मामले भी काफ़ी बढ़ चुके थे.आपराधिक इतिहास रखने वाले कई नेता विधायक बन चुके थे.ऐसे नेताओं के ख़िलाफ़ लोगों में एक गुस्सा था और मनोज वाजपेई ने इसी गुस्से को जीने की कोशिश की. 2003में आई गंगाजल ने इसी सिलसिले को क़ायम रखा. प्रकाश झा की इस फ़िल्म ने 80 के दशक में हुए भागलपुर अंखफोड़वा कांड की याद दिला दी.एसपी अमित कुमार की भूमिका निभा रहे अजय देवगन की दो चुनौतियां थीं. अपराध से निपटा कैसे जाए और निपटने के तरीक़े क्या हों.इस फिल्म में ये सवाल काफ़ी मायने रखता था.
              हमेशा ये देखा गया कि दर्शकों को फिल्मों में एक ऐसा पुलिस इंस्पेक्टर पसंद आया, जो रॉबिनहुड की तरह उनकी सारी दिक्कतों को चुटकी बजाते ही हल कर दे. वो ईमानदार भी हो. लेकिन नौकरशाही की उलझनों से पूरी तरह बाहर. उसके अपने तौर-तरीक़े हों. क़ानून को लागू करने का उसका अपना क़ानून हो. दबंग ने यही साबित किया. साल 2010 भ्रष्टाचार के लिए कुख्यात रहा और इसी दौर में एक फिल्म आई,दबंग...दबंग कोई गुंडा या मवाली नहीं था,बल्कि एक पुलिस इंस्पेक्टर था.एक ऐसा पुलिस इंस्पेक्टर जिसकी हरकतें बिल्कुल गुंडे और मवालियों जैसी थीं, लेकिन वो अपना काम जानता था. वो प्यार भी करता था तो रौब से. कई बार बच्चों की तरह भी. लेकिन लड़ाई में वो बिल्कुल सुपरमैन हो जाता था.चुलबुल पांडे यानी सलमान ख़ान के क़िरदार ने लोकप्रियता के कई रिकॉर्ड तोड़ डाले.उसके डायलॉग लोगों की जुबान पर हैं.
        लेकिन सवाल उठता है कि ऐसे किसी क़िरदार की समाज को क्यों ज़रूरत पड़ती है.शायद फिर से समाज में एक संकट पैदा हुआ है और लोग इससे निजात पाने के लिए ऐसे ही किसी सुपरमैन की तलाश कर रहे हैं. जिसके पास वर्दी हो.फिल्मों के केंद्रीय पात्र फिर से पुलिस इंस्पेक्टर बनने लगे हैं. हिंदी सिनेमा ने हमेशा वक़्त की नजाकत को समझा है, और शायद वही समझ है जिसके चलते एक के बाद एक ऐसी फिल्में आने वाली हैं, जिसमें परदे पर वर्दी अपनी पूरी ठसक में दिखेगी. अभिषेक बच्चन की दम मारो दम तो आ ही चुकी है.जैकी भगनानी की मुंबई पुलिस और आमिर ख़ान की ज़ख़्मी तक ये सिलसिला हमें देखने को मिलेगा. दर्शक इसे कब तक देखना चाहेंगे.ये तो वक्त ही बताएगा.फिलहाल के लिए पुलिस इंस्पेक्टर ही हमारा नायक है.
संप्रति- सुधाकर सिंह

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